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Sunday, October 28, 2012

tum

                      तुम

जाने कब से बैठा हूँ, मैं इसी मंथन में ।
कैसे बांधू , तुमको शब्दों के बंधन में  ।
कैसे बताऊँ तुम्हारा महत्व अपने जीवन में ।
 लाख कोशिश के बाद भी नाकाम हूँ, इस जतन में ।

कहने को तो तुम्हारे  बिना भी जिंदा हूँ ।
पर अंतर नहीं है, ऐसे जीवन और मरण में ।
शायद और ऊँचा उड़ सकता हूँ, तुम्हारे बिना ।
बिना ख़ुशी कामयाबी की कीमत है? हूँ इसी चिंतन में ।

जीवन को हर्षित करने वाला सतरंगी स्पर्श हो तुम ।
भोतिकता के अभाब में भी,  संपूर्णता  का अहसास  हो  तुम ।
ज़िन्दगी खूबसूरत बनाने वाला प्रफुल्लता का साज हो तुम ।
कह सकता हूँ, संक्षेप में मेरा कल और आज हो तुम ।